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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 7 दिसंबर 2023

नरेंद्र सिंह

वर्षों से संसद तथा विधानसभा चुनाव में वोट देकर सरकार बन रही है। संसदीय चुनाव की प्रकिया का यूरोप तथा अमेरिका
में शुरू हुए 100 वर्ष से ऊपर हो गए। इसके बाद एशिया में भी साम्राज्यवादी देशों के हुकूमत के खत्म होने के बाद 5 साल पर संसद का चुनाव आम तौर पर
जारी है। लेकिन क्या इस संसद ने पिछले दिनों में मजदूरों के हितों में कोई कानून बनाया, उल्टे पूंजीवादी सरकार अंग्रेजों के जमाने में भी जो मजदूरों को
अधिकार दिए गए थे, उसमें भी कटौती करके नए श्रम कानून को लागू किया है।
इस कानून में मालिकों को 12 घंटे काम कराने की कानूनी छूट है। 19वीं सदी में सम्राटों व सामंतों के खिलाफ संघर्ष में पूंजीपतियों तथा मध्य वर्ग के साथ मजदूरों ने भी खड़ा होकर संसद के निर्माण और एक वोट के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी थी। लेकिन संसद के बनने के बाद पूंजीपतियों ने सामंती शक्तियों से समझौता कर लिया, मजदूर वर्ग और छोटे किसानों को अपने
मुख्य दुश्मन के तौर पर जीवन के साधनों के हरण के साथ-साथ पैसे के बल पर राजनीतिक अधिकारों से भी अलग कर दिया। संसद में सरकार चलाने वाली सभी पूंजीवादी पार्टियों ने सत्ता में आने के बाद अपने-अपने देश के सामंती शक्तियों को पूंजी के मालिक बनने में मदद की और इस तरह से सामंती लूट से बटोरे
गए अकूत धन पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी बन गई। राजाओं के बड़े-बड़े राजमहल आलीशान होटल बनकर पूंजी की कमाई का आधार बन गया, सामंतों के कब्जे की जमीन बड़े-बड़े कारखानों और संस्थानों के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था में
पूंजी बढाने वाला तंत्र बन गया है।

शुरुआती दौर में सामंती ताकतों की मदद से पूंजीपति तथा पूंजीवादी सरकारें मजदूरों तथा गरीब किसानों के वोट को जबरदस्ती कब्जा कर लेते थे। 
गुजरते समय के साथ एशिया के इन देशों में मेहनतकशों का आंदोलन बढा और
ऐसे तमाम सामंती हमलो के प्रतिरोध में लंबी लड़ाई चली। सामंती शक्तियां धीरे-धीरे कमजोर होती गई, लेकिन पूंजीवादी शक्तियां उतनी ही मजबूत होती गई।
अब पूंजीपति सामंती और स्थानीय गुंडों के माध्यम से वोट पर कब्जा करने के
बजाय अपनी पार्टियों को बड़े पैमाने पर चंदा देकर अभावग्रस्त मेहनतकश आबादी 
के वोट को खरीदने लगे। दशकों पहले भारत में कम पैसे में जनसाधारण लोग 
भी चुनाव लड़ लेते थे, लेकिन अब तरह-तरह के नियमों और बेतहाशा खर्च की परंपरा के 
बढ़ने से चुनाव इतना महंगा हो गया है कि मजदूर लोगों की बात तो छोड दीजिए, 
साधारण मध्यवर्ग के लोग भी पूंजीपतियों की मदद के बगैर चुनाव नहीं लड़
सकते हैं। इस कारण जहां 1947 के बाद संसद या विधानसभा में मध्य वर्ग के लोग ज्यादा होते थे, अब सभी पूंजीवादी पार्टियों में पूंजीपति खुद चुनाव
जीतकर आने लगे हैं। संसद या विधानसभा में दलित तथा आदिवासी समाज के 
लिए आरक्षण है, लेकिन इन पार्टियों का हिस्सा बनकर ऐसे सांसद भी अपने ही 
समाज के मजदूर और किसानों के खिलाफ पूंजीपतियों के पक्ष में बनाए गए कानूनों का समर्थन करते हैं।
दशकों पहले लेटिन अमेरिका के कई देशों में संसद के रास्ते चुनाव जीतने के बाद सरकार बना कर मजदूर वर्ग की पार्टियों ने मजदूरों के पक्ष में कानून बनाने और
साधनों पर राज्य के नियंत्रण का प्रयास किया। लेकिन साम्राज्यवादी शक्तियों ने 
घरेलू पूंजी के मालिकों से मिलकर फौजी विद्रोह के द्वारा संसद में बहुमत वाली
सरकार और उसके नेता की हत्या कर दी। यह स्पष्ट है कक शासन और संसद में 
भी उसी वर्ग की चलती है, उसी के पक्ष में कानून पास होता है, जिसके पक्ष में वहां की पुलिस, फौज तथा नौकरशाही का तंत्र काम करती है।
इसके अलावा न्यायपालिका भी कमोबेश पूंजीपतियों के पक्ष में ही फैसले लेते हैं।
संसद में यदि मजदूरों के पक्ष में कानून बना भी दिया जाए, तो संविधान का हवाला देकर यहां की न्यायपालिका उन कानूनों को लागू होने से रोक देगी या 
विलंब कर देगी। ऐसी स्थिति स्थति में जन आंदोलन के द्वारा वर्ग संघर्ष को तेज करके 
जब तक मजदूर वर्ग सत्ता के सभी अंगों पर अपना नियंत्रण करने में सफल नहीं
होता है, मजदूर वर्ग का राज स्थापित नहीं हो सकता है।
19वीं सदी में पहली बार पेरिस कम्यून में मजदूरों ने सत्ता संभाली थी। वे कानूनी तौर तरीकों में ही उलझे रहे, जब तक कि पूंजीपति वर्ग ने पूंजीपतियों के मदद
और बैंक के खजाने का उपयोग कर एक मजबूत सेना का गठन किया, मजदूरों
के ऊपर भारी दमन कर उनकी सरकार को उलट ददूया। इसी के अनुभव के बाद
मार्क्स ने मजदूरों को सूखाया कि पूंजीपतियों के द्वारा स्थापित संस्था फौज व नौकरशाही को ध्वस्त करके ही सबों का फिर से निर्माण कर मजदूर वर्ग अपना
शासन चला सकता है। पेरिस कम्यून के अनुभव के आधार पर ही लेनिन के नेतृत्व में रूस में मजदूरों ने जार और पूंजीपतियों की फौज़ और नौकरशाही का 
विघटन कर नए ढंग से लाल फौज का निर्माण किया। पुरानी नौकरशाही को
किनारे कर मजदूरों को राज्य के काम करने के लिए सिखाया गया, तब कहीं सोवियत सत्ता के द्वारा मजदूर, जूसमें नीचे से सभी वर्ग अपने प्रतिनिधि भेजते
थे, शासन चला पाया। इतिहास के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है
कि मजदूर वर्ग संसदीय रास्ते से शासन प्राप्त नहीं कर सकता है। जो भी पार्टियां लाल झंडे या मजदूर वर्ग की पाटी के नाम पर यह भ्रम फैलाते हैं, वास्तव में
पूंजीपति वर्ग के पक्ष में राजनीति करते हैं। मजदूर वर्ग को ऐसी पार्टियों के प्रति
आलोचनात्मक रवैया अपनाना चाहिए और अपने हितों तथा राज्य के चरित्र को 
समझने की कोशिश करनी चाहिए।

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